
मैं बाबा की नन्ही गुड़िया,
लगती जैसे जादू की पुड़िया।
उनकी हूँ मैं राजदुलारी,
जैसे फूलों से महकी फुलवारी।
दिन भर उनके संग मैं खेलूँ,
भागूँ, दौडूं, कंधे पर चढ़ लूँ।
ले लेते वो मेरी सारी बलैया,
संग नाचे वो ता-ता थैया।
थाम के उँगली चलना सीखा,
जीने का उनसे मिला सलीका।
जान से उनकी मैं हूँ प्यारी,
घर-आँगन में चहकूँ, मैं सुकुमारी।
आशीष तेरा मैं नित दिन चाहूँ,
जिस पर अपना सर्वस्व लुटाऊँ।
हर जन्म तुम्हारी सुता बनूँ मैं,
चाह ईश से यही करूँ मैं।
-स्मिता देवी शुक्ला

बहुत ही प्यारी कविता थी!
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बहुत सुन्दर!
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Fantastic poetry.
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बचपन की ओर आकृष्ट करती हुई अप्रतिम रचना
सराहनीय
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