
कुछ भी बन, बस ऐसे मत बन आस करें हम युग आने की, वैसे समय के मिल जाने की | प्रतिपक्षी भी पड़े बिपति में, जिसमें से होकर हम फिसले | हमें भी मौका मिले हंसी का, व्यंग्य कर सकें उसी ढंग से | बदले की भाषा गन्दीली निंदा सबद बड़ी ही रसीली, कुछ भी बन बस ऐसे मत बन।
दुश्मन बहे बिपत्ति की धार, विपदा उस पर पड़े अपार | बूंद-बूंद पानी को तरसे शंका के बादल फट जाएं, अपना भी दुश्मन बन जाएं विषम व्यवस्था जो हम पाएं वैसे ही उसको मिल जाए | दैव जरा इतनी सी सुन लो, जन की ओछी सोच बदल दो | चाहे जितनी पड़े बिपत्ति भरत वंश की आन बचा लो, कुछ भी बन, प्रतिघात न बन।
-कमल चन्द्र शुक्ल

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Just become a good person……🤗🤗🤗.The poem is awesome as always🙃
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Sir आपकी सारी कविताएं बहुत अच्छी लगती हैं
आपको एवं आपकी कविताओं को शत् शत् नमन।
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आपकी कविताएं बहुत अच्छी हैं।
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Thanks
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☝️👍
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Thanks
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लाजवाब
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धन्यवाद
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