कुछ भी बन……

कुछ भी बन, बस ऐसे मत बन
आस करें हम युग आने की,
वैसे समय के मिल जाने की |
प्रतिपक्षी भी पड़े बिपति में,
जिसमें से होकर हम फिसले |
हमें भी मौका मिले हंसी का,
व्यंग्य कर सकें उसी ढंग से |
बदले की भाषा गन्दीली
निंदा सबद बड़ी ही रसीली,
कुछ भी बन बस ऐसे मत बन।
दुश्मन बहे बिपत्ति की धार,
विपदा उस पर पड़े अपार |
बूंद-बूंद पानी को तरसे
शंका के बादल फट जाएं,
अपना भी दुश्मन बन जाएं
विषम व्यवस्था जो हम पाएं
वैसे ही उसको मिल जाए |
दैव जरा इतनी सी सुन लो,
जन की ओछी सोच बदल दो |
चाहे जितनी पड़े बिपत्ति
भरत वंश की आन बचा लो,
कुछ भी बन, प्रतिघात न बन।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

9 thoughts on “कुछ भी बन……

  1. Sir आपकी सारी कविताएं बहुत अच्छी लगती हैं

    आपको एवं आपकी कविताओं को शत् शत् नमन।

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