
आज जब मै घर से निकला शहर के लिए, तो देखा! पिता बड़े उदास हैं। देखा बड़े गौर से आकाश सी सीमा को समेटे पिता के व्यक्तित्व को । यकीन मानों मैं हिल गया देखते ही रह गया था जिसमें हैं असीम सामंजस्य की शक्ति जो पिछले चालीस वर्षों से बस, ऐसे ही बने हुए है, न बूढ़े न जवान मेरी नज़र में, सर्व समर्थ सत्ता को समेटे। साहस और शक्ति के मूर्त रूप अभिन्न कुछ जैसे भीष्म हों । घर परिवार समाज के विभिन्न कठिन दायित्यों का सहज निर्वहन। हँसी खुशी में सिर्फ़ मुस्कराना। दुखों मे कभी असहज न होना। घर के बर्तनों को टकराने से बचाना और उन्हें सहेज कर रखना। आगे बढ़ने के अवसर बताना। खुद अभावों में बिना जताए रह, सभी की कोमल भावनाओं की कद्र करना। उन्हें कुछ नहीं चाहिए बदले में सिर्फ हम सब हैं, की आवाज को छोड़कर। लेकिन आज पिता उदास हैं बच्चे मेगा शहरों में नौकरी की रक्षा के लिए वापस जा रहे हैं पिता को छोड़कर| पिता को खुद की नहीं अपितु कोरोना से किनारा करने की अपने बच्चों की हैं, कि बुजुर्ग पिता की स्नेहिल प्रीति अधिक भीति लाती है जैसे राम की शक्ति पर बिभीषण को संदेह होता है। लेकिन क्या करें? पिता को सहृदय नमन के सिवा कुछ करने या देने की सामर्थ्य नहीं है , हममे और तुममे। पिता की आंखे कुछ ढूढ रही हैं बताने और कहने के लिए स्नेहिल, आशातीत समर्पण सबके लिए लेकिन आज पिता उदास हैं।
-कमल चन्द्र शुक्ल

Hey Kamal ji….. you have been nominated for Liebster Award.
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Hope for your answer soon 😊🤞
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❤️❤️💯💯👍👍✌️🤟👌
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कविता से आगे की सोच को नमन
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This poem is very good👍👍
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बहुत बढ़िया सर
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बहुत अच्छे सर
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