पिता…

आज जब मै
घर से निकला शहर के लिए,
तो देखा! पिता बड़े उदास हैं।
देखा बड़े गौर से आकाश सी सीमा
को समेटे पिता के व्यक्तित्व को ।
यकीन मानों मैं हिल गया
देखते ही रह गया था
जिसमें हैं असीम सामंजस्य की शक्ति
जो पिछले चालीस वर्षों से बस,
ऐसे ही बने हुए है, न बूढ़े न जवान
मेरी नज़र में, सर्व समर्थ सत्ता को समेटे।
साहस और शक्ति के मूर्त रूप
अभिन्न कुछ जैसे भीष्म हों ।
घर परिवार समाज के विभिन्न
कठिन दायित्यों का सहज निर्वहन।
हँसी खुशी में सिर्फ़ मुस्कराना।
दुखों मे कभी असहज न होना।
घर के बर्तनों को टकराने से बचाना
और उन्हें सहेज कर रखना।
आगे बढ़ने के अवसर बताना।
खुद अभावों में बिना जताए रह,
सभी की कोमल भावनाओं की कद्र करना।
उन्हें कुछ नहीं चाहिए बदले में
सिर्फ हम सब हैं, की आवाज को छोड़कर।
लेकिन आज पिता उदास हैं
बच्चे मेगा शहरों में
नौकरी की रक्षा के लिए
वापस जा रहे हैं पिता को छोड़कर|
पिता को खुद की नहीं अपितु
कोरोना से किनारा करने की
अपने बच्चों की हैं, कि
बुजुर्ग पिता की स्नेहिल प्रीति
अधिक भीति लाती है जैसे
राम की शक्ति पर
बिभीषण को संदेह होता है।
लेकिन क्या करें? पिता को
सहृदय नमन के सिवा कुछ करने या देने
की सामर्थ्य नहीं है , हममे और तुममे।
पिता की आंखे कुछ ढूढ रही हैं
बताने और कहने के लिए
स्नेहिल, आशातीत  समर्पण सबके लिए
लेकिन आज पिता उदास हैं।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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