
पांच मई पच्चीस को जब भारत-सम्राट ने चिनाब के जल प्रवाह को रोका तो मैंने प्रवासी अखनूर के नाते दरिया को टोका । माते चिनाब ! तू पाकिस्तान क्यों गई? न जाती तो आज इतनी बड़ी बात न होती । न तेरा बहाव रोका जाता और न तुम पर आश्रित लोग, जीव जंतु यूं तड़पते। उलाहने सुन चिनाब बिफर गई । और उफनकर बोली । अरे अहंकारी मानव ! क्या किसी नदी को कभी कोई रोक पाया है। ये मन का क्षणिक संतोष है कि मैं रुक गई हूँ और मैं तो हूं नित पुनर्नवा एक तुम नए आवेश में भोज और विक्रमादित्य की धरती पे क्रूरता का कर्म करते हो और मेरा प्रवाह रोकते हो। न्याय की संगत परिभाषा बदलना कहां से सीख जाते हो। मानवता को गिरवी रख हिंसा के टेरियर कुत्ते पाल लिए और न्याय के नियंता बन गए तुम , सिर्फ एक शताधिक सालों में सात भाग में बंट जाते हो और मुझे छिन्नमस्ता (माता) बनने पर मजबूर करते हो । खुद सुधारो अपने को, और इतिहास में किए कृत कर्म को, एक हो पुनः सब, लेकिन करो न वह सब जो नहीं है प्रकृति अनुरूप, मैं अपने प्राकृत रूप में ही सबकी प्यास बुझाऊंगी..
-कमल चन्द्र शुक्ल

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