

राजनीति की समय-शिला पर छोर बदलते देखा है । समय की तलहटी के पास पलट कर जब मैं जाता हूँ यक़ीनन शर्म से अपने को घिरा खुद को ही पाता हूँ । मैं कैसे खुद को समझाऊँ कि हम तो मन के सच्चे थे । जो उनके पक्ष में बैठे हमें वे जनप्रिय दिखते थे। नवें दशक के अंत में, प्रयाग के प्रांगण में राजा नहीं फ़क़ीर, भारत की तकदीर, की सत्यता के लिए दूसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के, तकनीक के पुरोधा राजीव जी को अंगूठा और श्याम पोस्टर दिखाकर चक्रधर दल को सत्ता में लाए। काबिज़ हुए जिस दम,आ गए दुर्दिन अपनों पर ही,अनवरत दुखदायी पुराने शासकों से भी क्रूर बन, आततायी बिजलियाँ गिरा योग्यतम की उत्तरजीविता के ख़िलाफ़ प्रतिभा का हनन कर, अन्याय को हौसला और हवा देते हैं। जो आज तक जारी है, सभी दलों के मानसिक एजेंडों में। अम्बेडकर की समता को, कोई दल क्यों नहीं समझा ? अभिव्यक्ति के खतरे कौन उठाये ? अंधेरे का मुक्ति बोध बने कौन ? एक कलाम बनने के लिए सदियों का वक्त और अनंत, निर्मल मन कहाँ वक्त का मारा आदमी पाता है। अफ़ज़ल कसाब तो आज भी तथाकथित संभ्रांतों का चहेता है । तभी तो खुल जाता है, आधी रात में भी बड़ी कचहरी का कपाट, भला और किसी के लिए असमय कहीं खुलता है ? दोस्तों ! बहुत ज़्यादा गैप है जीवन के दार्शनिक सिद्धांतों और असल कार्य के खेतों में । पता नहीं कैसे जीते हैं ये घूमते पहिये जैसे फैसले लेने वाले राजनेता और जनता भेड़ की तरह हरबार उनसे छली जाती है बार बार, अनिश्चित काल खंडों के, राजनीतिक गलियारों में । वोटर की आत्मा अपने बाह्य शरीर को मूल्यों की आशावादी चादर से अनवरत ढकते हुए अपने अगले [कमियों को नज़रअंदाज़ कर] नए नेता के चुनाव के लिए जनता फिर छोर बदल लेती है।
-कमल चन्द्र शुक्ल

Excellent
LikeLike
बहुत उच्चतम
LikeLike