दो मन

ज़िंदगी ! अजीब उतार- चढ़ाव से भरी
मेरी समझ के बहुत दूर
जिन्हें जाना बहुत करीब से
वो आशाओं के बहुत दूर
क्षितिज के पार दिखते हैं।
मेरा एक दोस्त-
नाम है अंतर्मन।
निरंतर समझाता है मुझे
कुछ न सोचने को
अनथक कहता है,
लेकिन मायावी मन हठी कुरंग-सा
मेरी लगाम के खिलाफ ज़िद करता है ।
जीवन के विविध रास्ते
हर रिश्तों का पलायन कर
खिलाफत की डगर पकड़ते हैं
कहते हैं कि विकास के वास्ते
यह सब करना होता है,
लेकिन कुछ दिखता झोल है।
अंधी दौड़ की ठेलमपेल में
आत्मा पद दलित हो जाती है
सब कुछ चलता है कि अवधारणा में
बड़े श्रेष्ठ जन भी,
न्यून बात को भी 
न्यूड प्रचार करते हैं।
राजनीति के दलदल में 
अपनी स्वयंभू सत्ता के लिए,
अनाचार के कीचड़ में सीने तक
डूब जाते हैं, सन जाते हैं। 
जल में जीरे का तड़का लगाकर
खुद को पाक साफ़ होने का 
प्रमाण जनता को देते हैं।
सीधे से हो गया तो ठीक नहीं ,
सत्ता की ताकत से दरेरा देना भी आता है उन्हें,
सब कुछ सही हो जाता है
अगले पल में, दिन में ।
मीडिया, लोग बाग
धरे के धरे रह जाते हैं।
आखिर में यह भटकाव क्यों ?
हम अपने अतीत का रोना छोड़
खुद कुछ करें, सोचें
समय बली है, तुम नहीं ।
यह जानकर भी मेरा-तेरा  का
समापन क्यों नहीं होता ?
मुझे अब पता चल गया कि
नियति का खिलौना आदमी  !
तेरी तानाशाही का शिखर तो अब पतन का प्रारंभ है । 
तेरी ये सांसों की सियासत  
हर राज वंशी सभ्यता के
भोग की अशुच कहानी है
तभी तो सब कुछ देखकर भी
जीने की वायु की कथा को
उलझन भरे माहौल में
भारत के मंदिर संसद में
ताश के पत्तों की तरह
झूठ ही खेलता और बयान देता है।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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