दोस्त….

बरसात के मौसम में 
कागज़ की नावों में
नाविक यात्री तय करने में,
काले चींटों को चढ़ाते समय
बचपन की विस्मृत न होने वाली
कंचे के खेल की गलियों में
ईंटों की रेल बनाने और चलाने में
बेधड़क मिलते हैं।

स्कूल के दिनों में
गृहकार्य करने के अवसरों पे
मास्टर की मार से बचाने में,
विद्यालय के विविध,
सांस्कृतिक समारोहों में
अवसर विशेष की आशा में
ऊंच नीच, धन की सोच किए बिना
आतुर हो के मिला करते हैं।

बगैर पोर्टफोलियो, स्टेटस के
बुद्धि बल को बिना तोले
अंक, पद, सामाजिक प्रतिष्ठा की
सोच लिए बगैर, एकांत में चुपचाप,
बिना अपनी पीड़ा बताए
दोस्त की कामयाबी के लिए,
पुरानी स्मृतियों के सहारे,
भावनाओं की भीतर तक
समझ रखने वाले,
बचपन की स्मृतियों के सागर में
तैरने पर निरंतर मिलते हैं।

बहुत बड़ी प्रतिष्ठा, पद पाने पर,
या जीवन के झंझावतों में
बुजुर्गियत की सीमा में या
अंतिम समय आने पर
बंद पड़े ताले की चाभी की तरह
दोस्तों की याद में
एकाएक चुप हो जाने पर
ईद के चांद से,
खुशहाल मिल जाते हैं।

आकाश सा खुल कर,
स्मित रेखा खींचकर, बादलों सी हंसी वाले
सूरज की पहली किरण से
अंतिम किरण की तरह
रोज, बिना बताए मेरे अंतर्मन में
बेझिझक स्वतः खुले आम
निस्संकोच, यादों की यात्रा में
तेजस ट्रेन में, कुछ पल मिलते हैं।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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