जिद !

जिद की कोई सीमा है ?
विधाता ही सहाए।
बड़ी अजर है और अमर भी
बचपन से ही बच्चा
चुहल करके मां से
जिद कर बैठता है
चांद तारे की मांग करके,
और ममतामयी मां जस-तस
पूरी करती है बच्चे की इच्छा
आईने में चांद लाके।
जवां होके यही बात
खुद प्रेयसी से कहता है
किसी मौके के मेले में
कि चांद तारे तोड़कर ला सकूँ
गर तू कहे तो।
मेरे दोस्त कैसे ठीक है ये ?
जिद सीता की हो या
द्रुपद सुता पांचाली की,
सब खतरनाक है,
ख़तरनाक़ तो तब और जब
जिद करने और करवाने वाले
दोनों ही अड़ जाएं ।
बाप और बेटा आमने सामने हो
जब जन गण किसान और
शासन सत्ता सम्मुख हो,
तो भगवान ही जाने कि
किस जिद की जीत होगी।
लेकिन यह तो सच है कि
बस्तियाँ वहाँ जरूर
एक दिन बसती हैं
जहां, आसमां की जिद
बिजलियाँ गिराती है।
गुंजाइश सिर्फ इस बात की है
किसी को पता नहीं शायद,
कि पहल के परिवेश में
परवरिश करने वाले में
पोरस जैसा पौरुष है या
बंगाल के मीर सी चालाकी। 

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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