
क्या तुम अब ऐन फ्रैंक बनकर बोलना चाहती हो कि पता नहीं क्यों जन्म लेते ही सारे आदर्शों एवं संस्कारों की भारी गठरी मेरे सिर पर रख दी जाती है, भारी जिम्मेदारियां घर और बाहर की सारे भीषण दुखों का तमगा मेरे हिस्से की धूप-सी । सभी को बिना आह उह किए, धरे जाती हूँ लेकिन आश्चर्य तब होता है जब इन पहाड़-सी कठिनाइयों को पार करने के बावजूद हमें बेबाक अबला कह दिया जाता है जीवन की यज्ञशाला में प्रयुक्त प्रणय के कोमल आम्र पल्लव यह सभ्य समाज, मानवाधिकारों के ठेके, कन्या भ्रूण हत्या, विभिन्न समुदायों के पुरोधा उन्हें सूखी पत्तियों में तब्दील कर देते हैं और दिए जाते हैं विशेषण समापन पर त्याग की देवी, तपस्या की मूर्त रूप क्योंकि मैं स्त्री हूँ....
-कमल चन्द्र शुक्ल

वाह! क्या बात है
LikeLike
Very nice & touching poem sir. Women really deserve a respect, rights & equality which is still very far in our orthodox society.
This must change without no time.
R K Shukla
KV 1 Kota
LikeLike
You are right sir
LikeLike
Thank you
LikeLike
Very nice sir
LikeLike
Sir very nice
LikeLike
Such a good poem👌👌👌👌👌.Everyone should read this and feel the handcuffs they have on them🙁
LikeLike
सर, बहुत बढिया कविता !👌🏻 👏👏
LikeLike
सर, बहुत बढिया कविता !👌🏻 👏
LikeLike