हे संभवा !

सृष्टि की हे संभवा !
मैं आर्तमन पुकारता
प्राकट्य शक्ति रूप में,
जहान बाट जोहता
दिशाएं धुंध से भरी,
अन्याय का सब जोर है
मदान्ध आधी बह रही,
सर्वत्र आसव घोर है।
मर्यादा हीन संस्कृति का 
आज यहां जोर है
लुट रही है अस्मिता
दीखते सब क्लीव हैं।
इस तुम्हारी दुर्दशा को
तारा सुरुज निहारते
उठ खड़ी हो शक्तिपुंज,
श्री हरि न सोचते
विश्वास ज्योति, धूम्रमय,
है दुशासन घूमता,
द्यूत घर से भी अधिक,
है आज यहां पे नीचता।
न्यायालय की ओर न देखो,
ये प्रस्तर के मन रचते हैं ।
अखबार मीडिया कब पलटें,
अब विदुर भी चुप ही रहते हैं।
न्याय विला में स्वार्थमयी जन
मदमय रीति से सजते हैं।
हे आदि शक्ति की प्रतिरूपा
क्या कष्ट नहीं होता तुमको
इतने अनर्थ अतिचार देख,
क्यों प्रकट नहीं होती जग को
सावधान दुनिया वालों।
विध्वंसक आँधी आएगी
कर गर्व चूर व्यभिचारी का,
शासन को सबक सिखाएगी।
आदर्शों की बात सदा ही
तुमने जग को दिखाया है
इसी बात को लेकर ही तो 
सबने लाभ उठाया है
होने वाली घटनाएं अब
आदर्शों को हैं चिढ़ा रही
कितनी बिजली गिर जाय भले,
पापों की जय हर बार रही।
सीता, सावित्री, दमयंती,
तुम नहीं बनो हे सह जन्मी
जीवन शैली अब कर परिवर्तित
कुछ नया करो हे शुभ उर्मि |

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

2 thoughts on “हे संभवा !

Leave a comment