
बुजुर्गों से सदा सुनता आया, समय करवट बदलता है विरोध भले हो लेकिन परिवर्तन शुभता लाता है । कठिन अंधेरा भी, रातों में तभी उजाला जग पाता है । पर मैंने अब देख लिया है तुम भी शायद हार गए या गठबंधन कर शांत हो गए । दुनिया मे कर्तव्यों की इति श्री कर लोकहित को भूल गए । आखिर कुछ के जीवन भर मे दुखों का अंबार क्यों है ? जीवन की मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता में भी प्रकृति क्यों हैं इतनी कठोर विषमताएं और दुःखद विभिन्नताएँ लिए हुए ? कहीं अबाध आरक्षित स्थिरता है संसार जनित मादक सुख की। कहीं पर मचलती नदी है तो कहीं पे आचमन की आस भी नहीं। ओ नियंता ! पावर्टी का ट्रांसलेशन सिर्फ
गरीबी नही, धन या संसाधन सुखों की, बल्कि है वो सोच, भाषा की संस्कार के दरबारीपन की, भेडियो के सामने दुम हिलाने एवम दब्बूपन की। नियति भी शायद विस्मृत है चक्र भी बदलाव का गतिमान नहीं। मत भ्रमित हो परिवर्तन ऐसे ! जीवन नीरस हो जाएगा और तुम बुझे, प्रभावहीन नत होंगे । हे समय ! नियति से कहो कि तुम्हारे साथ वह चले ताकि बदहाल, हासिए का आदमी भी आशा की साँस को पा सकें संकट के पार, मैदानी धरातल पर अपनी खुशियों का तानाबाना बुन सके, ख्वाबों का चमन धुंधलके खत्म हों उसके। रंग मंच की इस बावरी दुनिया मे उजाले के आस की सर्वप्रिय, सकल जनभावना जाग्रत हो सके।
-कमल चंद्र शुक्ल

Dawn after nightfall…..always come🌄.Nice poem👌👌
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मस्त है ये कविता ।
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♥️♥️💯😍
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Achchi Poem hai, sir
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