रात मेरी मुलाकात,
सफलता से हो गई।
जिसे देखकर मैं हुई पुलकित
मंद-मंद मुस्कराती बोल गई
बहन! तुम इतना क्यों इतराती
सब पाना चाहें तुम्हें,
पर किसी के हाथ यों
सहज क्यों नहीं आ जाती।
सुनकर ये मेरे शब्द
ओ हँसकर बोली,
बतलाती हूँ मैं ये रहस्य
मत समझो मुझे पहेली।
सतत करो कर्म
परिश्रम से मत भागो तुम,
जब तक न मिले मंज़िल ,
नींद, चैन को त्यागो तुम।
तुम आत्मविश्वास के बल पर
पहाड़, पर्वत हिला दोगे ।
चीर कर सीना मरुस्थल का ,
मचलती नदियां बहा दोगे।
विनत हुई सफलता के सम्मुख
मर्म ये मैंने जान लिया।
संकल्प ,योजना, कर्म को बनाएं प्रतिमान।
चूमेगी ये कदम हमारे, हर पीढ़ी, सोपान ।
-कमल चन्द्र शुक्ल


ati sundar kavita
LikeLike