खुशहाली….

झंकृत कर दो मन की वीणा, आशा के नव दीप जलाओ । भव बंधन तोड़ के सारे, ज्ञान की अविरल जोत जलाओ । जाति-पाति का वैर करो न तुम, मन के सारे मैल मिटाओ। अपना और पराया न कोई, ये मर्म जन-जन तक पहुँचाओ। संवर्धित कर मानवता को, सबके मन में खुशहाली लाओ। -स्मिता देवीContinue reading “खुशहाली….”

पेंसिल की बात

दिवाली के दिन, उल्लसित उजले मन हाट और मॉल में, लक्ष्मी गणेश के साथ विद्या की अधिष्ठात्री, सरस्वती  विषयक सामग्री ले रहे थे। अचानक एक खरीदार ऐश्वर्य युक्त, सुनहरी काष्ठ  लेखनी को छोड़, अड़ गया। पेंसिलों को दरकिनार कर अमिताभ विज्ञापित पार्कर पर बहक गया। घटना को घटित होते देख स्वाभिमानी डार्क पेंसि गुस्से में उबलContinue reading “पेंसिल की बात”

मैं खड़ा हूँ

देश की सरहदों पर पराक्रम का राफेल संरेख वर्दियों में छिप्रतम कटार के ऐतिहासिक आलेख मैं विश्वप्रेम सिखाता, दीवाली पर्व का आलोकन करता खड़ा हूँ। किसान के खेतों में छोटे छोटे लोन की क़िस्तों में खाद पानी बिजली की समस्याओं में स्थानीय गुप्त दस्युओं के आघातों में समृद्ध उजालों की रोशनी की आस में जीवन भरContinue reading “मैं खड़ा हूँ”

काश! कोई कह दे……

भारी भीड़ है हाट मॉल में हर ओर है खुशहाली छाई, सबके चेहरे की रौनक देख मन में चाहत है भर आई । काश! कोई कह दे…… घर आ जाओ, कि आज दीवाली आई है। झाड़ू, पोंछा लिए हाथ में सभी लगे करते हैं सफ़ाई, दमक रहा घर का हर-कोना बच्चों से है रौनक आई।Continue reading “काश! कोई कह दे……”

रात दिवाली

रात दीवाली भली है आली, तेरी खातिर सभी है चाली । चाल-ढाल है कुरंग वैसी, मदालसा की मादक जैसी । वर्ष एक है पूरा जाता, सुख, सौहार्द्र का दीपक आता । मिट्टी की महिमा बतलाने, देव दनुज धरती पर आते । संघर्षों की कथा सुनाने पंच पर्व का जश्न मनाते । दिव्य प्रेरणा स्रोत हैContinue reading “रात दिवाली”

मैं स्त्री हूँ……..

क्या तुम अब ऐन फ्रैंक बनकर बोलना चाहती हो कि पता नहीं क्यों जन्म लेते ही सारे आदर्शों एवं संस्कारों की भारी गठरी मेरे सिर पर रख दी जाती है, भारी जिम्मेदारियां घर और बाहर की सारे भीषण दुखों का तमगा मेरे हिस्से की धूप-सी । सभी को बिना आह उह किए, धरे जाती हूँContinue reading “मैं स्त्री हूँ……..”

हे संभवा !

सृष्टि की हे संभवा ! मैं आर्तमन पुकारता प्राकट्य शक्ति रूप में, जहान बाट जोहता दिशाएं धुंध से भरी, अन्याय का सब जोर है मदान्ध आधी बह रही, सर्वत्र आसव घोर है। मर्यादा हीन संस्कृति का  आज यहां जोर है लुट रही है अस्मिता दीखते सब क्लीव हैं। इस तुम्हारी दुर्दशा को तारा सुरुज निहारते उठContinue reading “हे संभवा !”

कब तक?

बुजुर्गों से सदा सुनता आया, समय करवट बदलता है विरोध भले हो लेकिन परिवर्तन शुभता लाता है । कठिन अंधेरा भी, रातों में तभी उजाला जग पाता है । पर मैंने अब देख लिया है तुम भी शायद हार गए या गठबंधन कर शांत हो गए । दुनिया मे कर्तव्यों की इति श्री कर लोकहितContinue reading “कब तक?”

उन्हें नमन

नमन उस हस्ती को जो अखबार की सुर्खियों के लिए नही गरीबों असहायों की मदद करता बिना नामचीन बने तैयार है । गुपचप अर्थनगरी में रहकर भी आधुनिक भामाशाह की भूमिका में। चकाचौध से दूर, स्व की चिंता से विरत जबकि बड़े बड़े स्वघोषित शहंशाह सुरा सरिता में आकंठ चोरी छिपे मदमस्त डूबे हैं, ढोलContinue reading “उन्हें नमन”

वर्जनाएं

गजब की है ये मायानगरी अजीब है संस्कृति यहां की अब लेकिन मैं अब क्यों कहा यहां ? बताएंगे किसी और दिन। यही न कि सुअर और मनुष्य समान रूप से तथाकथित इंद्रिय सुख के लिए बढ़ते हैं। मुझे तो लगता है कि हर व्यक्ति वर्जनाओं के साथ लेकिन चुपके से भीतर की उसकी आत्माContinue reading “वर्जनाएं”