नन्हीं चिड़िया

मेरे घर की बालकनी में
नीले पंखों वाली
मनोरम चिड़ियों का एक जोड़ा
बड़े शान से रात में
रहता था।
कभी-कभी मैं
उनको चुपके से देखता
खुश हो जाता,
उनकी
 खुशहाली देख के
कुछ माह बीते और बतलाते।
हंसी-हंसी में कह दिया
बिना किराया दिए मुफ्त में
मेरे साथ ये भी रह ले रहे ।
अहसान तो क्या, कुछ बोलते तक नहीं 
बस क्या था ?
दोनों स्वाभिमानी, तुनकमिजाजी
आज के असहनशील बच्चों जैसे
ईगो हर्ट हो
छोड़कर घोंसला चले गए,
और हम अपनी बात को याद कर
पछताते रह गए।
बड़ी मिन्नतों और मनौतियों पर
प्रभु की प्रार्थनाओं पर
महीनों बाद लौटकर आए
हमने स्वागत में घी के दिए जलाए
रंग-बिरंगी मिठाइयां खाईं 
खुशियां लौट आईं ।
लेकिन पहाड़ी नदी-सी मचलती जीभ ने
फिर कहर बरपाया
मेरे अति प्रेम ने
 तूफ़ान लाया
जब मैंने कल आठ मार्च की शाम,
रात होने पर
कहा कि ये मादा है या नर या दोनों एक हैं,
सुनते ही बहुत
बुरा मान गई और
अगली सुबह लिंग भेद का
आरोप हम पर लगाकर
घोंसले से फुर्र हो गई।
तब से अब तक नहीं आई ।
रोज इंतजार करता मैं कि
बस एक मुलाकात होती और मैं
उस से कह पाता कि
लिंग-भेद, रंग-भेद, जाति-भेद सिर्फ
मन की सोच और विकल्प हैं
ईश्वर के वैविध्य पूर्ण विश्व में,
रंग भरी दुनिया में, अलगाव और भेद कैसा
अंबेडकर के आदर्श समाज में भी
जैसा सोचते हो कहां है वैसा ?
समता काल्पनिक है, व्यवहार में नहीं है
क्योंकि सबकी प्रकृति नियति अलग है.
असहनशीलता की प्रवृत्ति के साथ ही
विवेक कुंठित हो चला है
तभी तो बंधुता का क्षेत्र भी
जेठ मास की नदी-सा
संकीर्ण हो गया है.... 

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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