
आज़ादी ! हर पल, प्रतिपल ठीक नहीं ये रिश्ते और संस्कार खत्म करती है, समाज द्वारा स्वीकृत मूल्यों को नकारती है, आदमी को घुमाती है इतना कि ज़िंदगी बेशर्म हो जाती है । मां-बेटी के भाव मलिन होते हैं पिता-पुत्र के रिश्ते तार-तार हो जाते हैं अपने ही लोग चाहकर भी स्वतंत्रता के फेर में अवांछित हो जाते हैं । बाघ और बकरी एक घाट के हो जाते हैं अपने सगे ही हमें अवांछित समझकर दरकिनार और फालतू कह देते हैं। ये आज़ादी ही है जो बड़ों का सम्मान छीनकर घटिया शब्दों से उन्हें नवाजती है, लोगों को शर्म भी नहीं आती जब मां, मातृभूमि और मातृभाषा तक गालियों की पहुंच हो जाती है। वित्त व्यवसाय में व्यस्त, मूल्यों में अस्त स्वार्थ लिप्सा में अनुरक्त लोग बबर शेर जैसे बड़े भारी दुनियादार खिलाड़ी होते हैं छोटे मेमने से लोग इस स्वतंत्रता के खेल में फंस कर पिस जाते हैं। देश की प्रगति के आईने, शिक्षा के शीर्ष संस्थान विश्वविद्यालय दुनिया में सैकड़ों पायदान पीछे खड़े मिलते हैं। आज स्वतंत्रता का लाइव शो मूर्ख सनकी दोस्त खुले आम चलाते हैं, कास्ट करते हैं। दार्शनिक विचारक आज़ादी का पुरोधा चिंतनशील गधा ट्रेन की तेज हॉर्न के बावजूद, झूठ-मूंठ भविष्य का नियंता बना आज़ादी का भ्रमजाल लिए बेखौफ, कवच पहने अभिव्यक्ति की आजादी का, प्रगति की पटरियों पर रेल को रोके खड़ा है। और हम चुपचाप यह सब प्रीत-भीत धर्मभीरू बने रोज़ देख और सह रहे हैं।
-कमल चन्द्र शुक्ल
