
दादा जी नित दिन उपवन में, करने सैर को जाते, देख प्रकृति का मोहक रूप, मन ही मन हर्षाते। प्रतिदिन का यही क्रम था, प्रात:काल वे आते, रंग-बिरंगे फूल, उनके मन को खूब भाते। करते खूब योग-व्यायाम, कुछ पल वहीं बिताते, हंसते-खेलते बच्चों के मुख, उनको बहुत लुभाते। धमाचौकड़ी खूब मचाती, उन बच्चों की टोली, कचरा जहां-तहां फैलाती, खाकर चिप्स हमजोली। उनमें था नन्हा बालक एक सयाना, चाहा उसने अपने मित्रो को स्वच्छता का मर्म समझाना। लाख करी उसने कोशिश, पर बात किसी ने न मानी, मौका पाकर करते रहे, वो हरदम मनमानी। एक दिवस वो नन्हा बालक, दिया नहीं दिखाई, चिंतित हो दादा जी ने, नज़रें इधर-उधर दौड़ाई। झुरमुट में दिख गया उन्हें वह, फेंके थैले उठाते, दादा जी झटपट पहुंचे, उस तक कदम बढ़ाते। पूछा उससे यह सब करने का, क्या है कारण ? मन ही मन मुसकाया वह, किया संदेह का निवारण। बाग-बगीचे, नदी-सरोवर, प्रकृति के हैं अमूल्य उपहार, समझे इनके महत्त्व को, न करें इन्हें बेकार। पर मनुज नासमझ, अपना फर्ज नहीं निभाता, जगह-जगह फेंके कूड़ा-कचरा, गंदगी है फैलाता। सब करें उपयोग कूड़ेदान का, अपना समझे फर्ज, न फैले मक्खी-मच्छर, न ही होगा किसी को मर्ज। खत्म कर बातें उसने जब, पीछे मुड़कर देखा, गलती पर थे सब साथी शर्मिंदा, जीने का मिला सलीका। मिल खाई सबने शपथ, भारत को स्वच्छ बनाएंगे, एक और एक मिलकर, ग्यारह का फर्ज निभाएंगे।
-स्मिता देवी शुक्ला
