मेरी हिंदी

तुम कितनी प्यारी सुंदर हो
तुमको इसका भान नहीं
मुझे लगो अनबुझी पहेली
जिसका मुझको पता नहीं ।
बाजार नहीं तुम संस्कृति हो
सपनों का लालित्य हो तुम
तुम हो यौवन का संस्कार
नव यौवन का संसार हो तुम ।
तेरे संग हो जाने पर  ही
मेरा गौरव मान बढ़ा
पथरीले जीवन के प्रति क्षण में
धन धान्य, सहज-सुख मान मिला ।
जीवन की सांसे मेरी हैं जो
वह सब तेरे ही कारण हैं
मेरी दुनिया की चकाचौंध
सब तेरे कर्म की साथी है।
संसार कुटिल की चालों में
कहते हैं कुछ, कुछ करें अन्य
पर जो तू बोले और लिखे
सच सोचे और तू वही कहे ।
मन में न कोई है भेद बसा
न कथनी करनी में अंतर है
तेरे जीवन में मूल तत्व
सबको लेकर चलने में है।
तू तो सूरज सा दिन में
दुनिया को दमकाती हो
रातों में चंद्र रश्मियों सी
मन मादकता फैलाती हो।
तुमने जब भी मुख खोला है
शब्दों का नशा ही घोला है
तुमको त्यागा है जिसने भी
उनको फिर कौन संभाला है।
चुपके चुपके बातें कर तेरी
तेरा अहसास जताते हैं
जब फंसे विदेशी भाषाओं  में
तब अपने ही कर मलते हैं ।
तुम जो मिली मैं धन्य हो गया
जीवन मेरा संपन्न हुआ,
जय हिंदी मेरी, हिंद देश
मैं कभी न तुमसे उऋण हुआ ।
तुम चिरंजीव, हे हिंदी मां
अब विश्व-पटल पर छा जाओ
अपनी मां संस्कृति जैसी ही
दुनिया को समता सिखलाओ ।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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