



मधुमास की स्वर्णिम सांझ फागुन का खिला पलास होली की आसनाई आंच मिजाज बदरंग करके जनता कर्फ्यू का आना वर्ष की होली मिलन का जलसा होंठ सिली सत्ता में तब्दील होना सिर्फ़ सपना-सा हो जाना सोचा न था। नए शिक्षण-सत्र की बिना सरस्वती पूजा के अनिश्चितता की शुरुआत ऑनलाइन पढ़ाई की बात बिना मिष्ठान्न के त्योहारों का मनाना दूसरों की बात तो दूर अपनों पर भी रोग संक्रामकता की निर्मूल शंका का घर करना दो गज की सामाजिक दूरी की बेखौफ़ गाली आभासी दुनिया में विश्वास रखना सोचा न था। भविष्य की आशंकाओं को देखते प्रसिद्ध ज्योतिषी से पत्रा जांच करके कोरोना की सुदूर सितंबर में विदाई बताते मज़दूर की मजबूरी को नज़रंदाज कर राजनीति की गर्म रोटी सेंकते अवसर परस्त नेताओं के बीच कुछ एक सिनेमाई नायकों का दिल से अहैतुक मदद करना ऐसा सोचा न था। जंगलों से निकल जंगली जीव शहर के घरों, चिड़ियाघरों में प्रकृति के कानून से डरे सहमे कोरोना के हंटर से भयभीत, लूट की नाव पर सवार राजनैतिक षड्यंत्रों की गंदी आदतों को बस ट्रेन हवाई सफर के रास्तों में बेटिकट लोगों को सरकारों पर बेशर्म राजनीति करना सोचा न था। तथा कथित लॉक की बंदिशें हों या अनलॉक की सहूलियतें घरों में बैठे लोगों के बीच या किसान आंदोलन में बजती थाली हो या जनता कर्फ्यू का घंट, घड़ियाल सभ्यता के ठेकेदारों द्वारा घरेलू हिंसा, उत्पीडन के आगे गरीबों की खेती में ब्लैक फंगस की तरह भितरघात की हिंसा करना कभी सोचा न था।
-कमल चन्द्र शुक्ल

‘सोचा न था’ , अपने शीर्षक को पूर्णत: सार्थक करती संवेदन से भरपूर एक विचारोत्तेजक और बौद्धिक कविता है जो कोरोना जनित त्रासदी और समस्याओं का अत्यंत मार्मिक चित्रण करती है।
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