
क्या कहूँ आज, अब कोई सुनते नही दिन गुजर जा रहा, हालात बदलते नही आप जो यूँ बताते कि महामारी आई दिन हैं संकट के अब ये आफत है लाई न इशारा किया न हवाला दिया बस चलाई की सुई कि चलती गई। होली जो खुशियों का पैगाम लाती बरस भर का रंगीन मौसम बताती उसमे भी तुमने जो टांगें अड़ाई ये मदमस्त शर्बत वो होली खेलाई अद्भुत है महिमा क्या तुमने बनाई न खेली थी होली न रंग हम खरीदे पिता ने तो बोला क्यूँ चीनी हम ला दें मायूस होली ने हमको धिक्कारा तभी तो परीक्षा ने हमको नकारा विंटर की ड्रेसेस तो बक्से में बंद हैं गर्मी की वर्दी भी मिमियाती छंद है। मनाये नहीं, गर्मी के अवकाश, हमने काटे मित्र दोस्त की याद में, भूल गई सब हाटे। लोग बोलें कि वर्षांत आशा नही है । देता कोई भी दिलाशा नही है संगी के यारों की सन सनाहट कहीं भी समर ड्रेस पहनने की आहट नही है। हमे क्या सरोकार, कोई भी हो सरकार हमारा तो बचपन भगा जा रहा है। मेट्रो व मेगा में, कोरोना सघन है ये दिन कितने पाहन ये कितने कठिन हैं।
-कमल चन्द्र शुक्ल

I can relate my situation with this poem😞……..anyways, the poem is really good😁
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सुंदर रचना
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