पाठशाला हम चलें……..

ऊबते मन की कहानी
वेब वर्ल्ड के जाल की,
जिसको पाने की खातिर ही
नैतिक मूल्यों की तोल की।
बहुत सोचा ऑनलाइन
फिर भी जान न पाया है,
है प्रबल तुम्हारी सोच कल्पना
सर्वत्र गगन, थल साया है।
झूठ तो बिल्कुल नहीं है,
पर सच के भी कहां करीब ?
मैं छू नहीं सकता तुम्हें,
पर अनुभवों पर सहज पाया।
पहले जब कभी एकांत में तुम
हाथ मेरे लग जो जाते,
खुशी का मेरा ठिकाना
पर्वतों के पार मिलता।
रोज मैं सानंद खिलता
स्क्रीन पर आँखें गड़ाकर,
ऋतु दिवस की फ़िक्र थी न
तुम नेट मेरे जो पास रहते।
बदल गए हालात अब तो
हफ्ते नौ हैं बीतने को,
कुंजी पटल से मन भरा,
समय आया छोड़ने को
यंत्र देता यंत्रणा बस ।
पलायन परिणाम को, जब
आएगा मन का चिकित्सक,
अति जो इसकी हो गई हो ।
सुबह हो या शाम-दुपहर ।
आप प्रतिपल ही बसे हैं
अनाहूत से रह रहे तुम,
तंग हो गए आपसे सब
मुक्ति कब पाएंगे हम ?
हर्ष तब, स्कूल हो जब
हम खेल का मैदान चाहें,
वृक्ष की गलबहियां बने औ
डेस्क अपनी देख जाएं |
प्रार्थना परिसर को पहुंचे
स्पर्श की चाहत हमारी,
दोस्तों के सख्य की औ
सीख की वो प्रेरणा  
प्रात दर्शन पुण्य बांचे।
दुश्मन कोरोना दूर हट,
अब हम गुरू दर्शन करें।
भाग जा तू विश्व बाहर,
पाठशाला हम चलें।
दैव कुछ ऐसा करो,
ये ऑनलाइन बंद हो
स्कूल मेरे खुल चले
बस बंदिशे कुछ चंद हों।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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