
अरे सुनती हो दीदी सुनयना, प्राइमरी स्कूल पर भारी भीड़ हैं परदेसी लोग यहीं कोरांटीन हो रहे हैं कोरोंना की भीत से | सब नजदीक के गांव के परदेसी चौदह दिन खातिर एकांत होंगे, बाकी जन शहर से पलायन कर गांव की ओर निकल पड़े हैं। सुनो ! पूर्वजों की कही बात एकदम सोलह आने सही है, नया नौ दिन पुराना सौ दिन त्रासदी पर खरी उतर गई है। गांव की खेती बाड़ी का मुकाबला कौन कर सका ? जिंदगी की जरूरत सारी पूरी करती धरती मैय्या, सब कुछ एक दूसरे पे आश्रित। कहीं जाने की न जरूरत तपाक से मिलने वाले सेठ बड़े निर्दय स्वार्थी जीव हैं हर तरह से छलते रहे हैं | देश , शहर की आमदनी शान -शौकत चकाचौंध कामगारों ने ही तो बढ़ाई, पर सुनो आज जब विपदा आन पड़ी तो, छोड़ दिया हाथ, हक्का बक्का मजदूर भूखे नंगे पांव, दुध मुहे बच्चों के संग निकल पड़े जीवट - बंधु पहाड़ की सी जिंदगी खपाई जिन खूबसूरत महलों के लिए, उन्हीं में रहने वाले पशु प्रेमी, सभ्य लोगों ने उसको निर्वासन दिया। राम, बुद्ध की धरती के पुरोधा परहित विश्वाहित की सोच वाले लोगो ने ही तो, भूखे प्यासे को रोटी न दी, बेबस छोड़ दिया। दुनिया को अपनी असलियत दिखा दी हमने तो कहते सुना लोगों से, कि अब शहर कभी न जाऊं मै खून पसीना एक करूं यहीं पे अपनी ग्राम्य धरती को आधुनिक लहलहाता रूप दूं | तकनीक भरी खेती करूं कोई कारोबार कर लूं, खुशहाल करूं गांव को आत्मनिर्भर हों अंबर तले निर्भय मदमस्त फिरूं |
-कमल चन्द्र शुक्ल
