
खेत सब बिखरे पड़े हैं ,दुकान सारी बंद है
हर गली सड़के मुहल्ले,देखकर सब सन्न है।
मर गए जयचंद गोरी जिसमें नैतिकता न थी,
रो रही यह भरत- भूमि जिसमें तब्लीगी न थी।
घूमते हैं दस्युओं से,ईमान है न इनका भला,
नाम में ईमान दिखता,पर कर्म लाता जलजला।
लोग कहते हैं जमाती ,पर असल में हैं खैराती,
मधु मक्खियों के घर में रहकर,खेल खेलें शह और माती।
ये धरा है ईशा राम की,अब प्रलय की सी डगमगाती
चतुर हिंसापूर्ण मानव ,बिलख मनुजता तरसती ।
एक कायर है कोरोना ,जो है चुपके से चिपकता
बनके तू एजेंट उसका ,नृशंस मौत है बांटता।
लोक हित अब भी बचा है,दुनिया है ईश की क्षमाशील।
आर्त भाव सम्मुख दिखाओ , स्वीकारो अपनी महाभूल।
-कमल चंद्र शुक्ल
