विरुद्धों का सामंजस्य

जन्म से मृत्यु तक
घर हो या बाहर
राजनीति के इतर और उतर भी
सर्वांग इसकी उपस्थिति
बस इक सोच ही है जो
चयन की नियति तय करती है ।
बिना इसके गति शीलता नहीं
प्रगति या परिवर्तन की आशा नहीं
जीवन के समत्व व सौहार्द्र की ।
लेकिन हम तो ऐसे हैं कि
मानते सदैव इसे बुरा
क्यों? पता नहीं लेकिन
विरोध परिवर्तनों का
सदैव व्याप्त शाश्वत है।
कबीर, तुलसी, जायसी की
शीतल वाणी की आग
देती है संदेश अनावृत अनल
सदैव अनाहुत ही विपक्ष में खड़ा होता है
निंदक नियरे की बात सुवासित होती है
हे प्रेमल सौहार्द्र के महामना
आप नव नवोन्मेष ऊर्जस्वित होकर
अनथक अनवरत गतिशील हो
कदम दर कदम इतिहास रचना
विश्व शांति के अग्रदूत होकर
बेपरवाह निंदा या प्रशंसा के
अवधूत शिरीष के फूल की तरह
अभय सत्ता के पुरोधा
विचलित न होना तुम कभी
क्योंकि बढ़ना ही विरोध है।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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