गंतव्य

दूर चलें क्षितिज के पार,
अधुनातम समस्याओं से घिरी
धूसरित दुनिया से।
स्वार्थ, वैमनस्य और भौतिकता की चौंधियाती चमक से भरी हुई सत्ता से ।
चलें हम एक ऐसी जगह जहाँ सब कुछ अपना हो,
पराया कुछ न हो
सब कुछ होने वाला
या हो सकने वाला ।
हमें सतत स्वीकार्य हो,
बिना किसी शर्त व परिणाम के।
एक ऐसे आसमान की खोज में
जिसमें धुंधलका न हो
कूटनीतिक उन्माद, कायराना राजनीति की,
अपितु सब जनों में हो सागर सा अथाह प्रेम
सभी को एक साथ ले चलने वाली रेल जैसी निष्ठा ।
भ्रातृता के साथ नैतिकता और मानवता की जीवन धारा बहाते हुए,
उस भरे समंदर की तरह
ऐसे संतोष के साथ
जिसका पानी सतत वाष्पित होता है ।
लेकिन,
वह यह मानता है कि मेरे सारे कृत्य विश्व कल्याण के लिए हैं।
और उसे यह स्वीकार्य है कि मेरी नागरिकता
सूरज और चाँद जैसी सार्वत्रिक है
सार्वजनीन है,
जिसमें मैं और तुम का आतंक नहीं
मेरा और पराया नहीं,
बस हम हैं।
इसी से सबजन, जगजन होंगे
तब मिटेगा मनों का वैमनस्य
बुझेगी ईर्ष्या की आग,
उजेला होगा आत्मा का
हम बनेंगे ग्लोबल
और हमारा होगा यही गंतव्य।।

-कमल चन्द्र शुक्ल

Published by kamal shukla

जन्म स्थान- प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम. ए. (हिंदी) , राजर्षि टंडन विश्वविद्यालय से एम. ए. (शिक्षा शास्त्र), फरवरी 2000 से केन्द्रीय विद्यालय संगठन मे स्नातकोत्तर शिक्षक के पद पर कार्यरत।

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